चरक सू.14 sample

स्वेदाध्याय (सु.सू.32, अ.हृ.सू.17)

वातकफ रोग नष्ट. पुरीष मूत्र शुक्र शरीर में रुकते नहीं.

* शुष्काण्यपि हिन काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनै: | नमयन्ति यथान्यायं किं पुनर्जीवतो नरान्‌ ||

  • वातकफ विकार में स्निग्ध रूक्ष स्वेद.
  • वातविकार में स्निग्ध स्वेद.
  • कफविकार में रूक्ष स्वेद.
  • आमाशयगत वात में रूक्षपूर्व स्वेदन.
  • पक्वाशयगत कफ में स्नेहपूर्व स्वेदन.

वृषण हृदय दृष्टि में मृदुस्वेद अथवा स्वेदन नहीं. वंक्षण में मध्यम स्वेदन.

सम्यक्‌ स्वेदन: शीत शूल की शान्ति, अंगमार्दव.

अतियोग: रक्तपित्तप्रधान रोग, मूर्च्छा, शरीरसदन. अ.स.- इनके अतिरिक्त छर्दि. सन्धिपीडा. चिकित्सा: तस्याशितीय अध्याय में वर्णित ग्रीष्मऋतुचर्या में मधुर स्निग्ध शीतल आहार-विहार.

अ.हृ.- अतिस्विन्न चिकित्सा:

  • स्तम्भन (श्लक्ष्ण रूक्ष तिक्त कषाय मधुरद्रव्य).
  • स्तम्भन निर्देश- अतिस्विन्न छर्दि अतीसार विष क्षाराग्निदग्ध.

स्वेदन अयोग्य: रक्तपित्तप्रधान गर्भिणी मधुमेह गुदभ्रंश अतिस्थूल पित्तमेह उदर वातरक्त सोष तिमिर. वाग्भट्ट ने कुछ अधिक- कुष्ठ, पाण्डु, दूधदधिस्नेहमधुपान किए हुए.

स्वेदन योग्य: वातकफरोगी अर्दित विनामक विबन्ध मूत्राघात. अ.हृ.- मेद कफावृत वात.

अग्निस्वेद प्रकार 13:

  1. संकर: इसी को पिण्डस्वेद भी कहते हैं.
  2. प्रस्तर
  3. नाडी
  4. परिषेक: वातिक, उत्तरवातिक रोगों में प्रयोग करें. गात्र को वस्त्र से आच्छादित करके परिषेक करें.
  5. अवगाहन
  6. जेन्ताक: पूर्व या उत्तर भूमि. कूटागार का उत्सेध, विस्तार (ऊँचाई, चौड़ाई) 16 अरत्नि (हाथ). समन्तत (गोलाकार). अग्निस्थान- 4 पुरुषहस्तप्रमाण विस्तार.
  7. अश्मघन
  8. कर्षू
  9. कुटी
  10. भू: अश्मघन विधि भूमि पर.
  11. कुम्भी
  12. कूप
  13. होलाक

निराग्नि स्वेद प्रकार 10: व्यायाम उष्णसदन गुरुप्रावरण क्षुधा बहुपान भय क्रोध उपनाह  युद्ध आतप. उपनाह अग्निस्वेद भी है.

स्वेदन के 6 प्रकार: अग्नि निराग्नि एकांग सर्वांग स्निग्ध रूक्ष.