चरक सू.13 sample

स्नेहाध्याय (सु.चि.31, अ.हृ.सू.16)

आरम्भ में सांख्य का उल्लेख. बल व स्नेहन के लिए तिलतैल व विरेचन के लिए एरण्डतैल श्रेष्ठतम.

स्नेह साधन 4: सर्पि तैल वसा मज्जा. संस्कारानुवर्तन करने से सर्पि सर्वोत्तम. (अ.हृ.सू.16- यथोत्तर वातकफघ्न, यथापूर्व पित्तघ्न)

घृत के गुण: रसशुक्रओजस निर्वापण स्वरवर्णप्रसादन.

तैल के गुण: वातशामक, न कफवर्धक (अ.हृ.- कफघ्न), त्वच्य, उष्ण, योनिविशोधन.

वसा के गुण: विद्ध भग्न आहत भ्रष्ट योनिकर्णशिरोरुजा, पौरुष उपचय, स्नेहन, व्यायाम चेष्यते. (अ.हृ.- अत्यग्नि)

मज्जा के गुण: मेदमज्जा वृद्धि, अस्थिबलकर, स्नेहन.

स्नेह का प्रयोग ऋतुनुसार (अ.हृ.):

  • घृत- शरद्‌ ऋतु
  • वसामज्जा- वैशाख
  • तैल- प्रावृट्‌

स्नेह अनुपान:

  • घृत- उष्णजल
  • तैल- यूष
  • वसामज्जा- मण्ड
  • सर्व स्नेह सामान्य अनुपान: उष्णजल.

स्नेहविचारणा: 24 आहारकल्पनानुसार.

अच्छस्नेहपान- विचारणा नहीं है. मुख्यकल्पना, सर्वश्रेष्ठ.

स्नेह प्रविचारणा: 64: रसभेदानुसार 63 + अच्छपान 1. अ.हृ. में स्नेहविचारणा 64.

स्नेह की मात्रा: 3 प्रकार (See also सु.सू.31)

  1. हृस्व: आधे दिन में (2 याम ) जिस मात्रा का पचन होता है: प्रयोजन- बृंहण.
  2. मध्यम: दिन भर में (4 याम/12 घण्टे में) पचन: प्रयोजन- शोधन. अरुष्क स्फोट कण्डु प्रमेह वातरक्त में उपयोगी. ‘मन्दविभ्रंशा’
  3. प्रधान: दिन-रात में (8 याम/24 घण्टे में )पचन: प्रयोजन- शमन. गुल्म, सर्पदष्ट, विसर्प, उन्माद, मूत्रकृच्छ्र, गाढवर्चस में उपयोगी. ‘पुनर्नवकारी शरीरेन्द्रियचेतसाम्‌’

अ.हृ.- मध्यम मात्रा- शमन. उत्तम मात्रा- शोधन. हृसीयसी मात्रा- 1 याम में पचन.

स्नेह का प्रकर्षकाल: मृदुकोष्ठ 3दिन, क्रूरकोष्ठ 7दिन. Minimum 3 days, Maximum 7 days. (मध्य कोष्ठ- 4, 5, 6 दिन)

अस्निग्ध लक्षण: ग्रथितपुरीष वायुरप्रगुणो.

सम्यक्स्निग्ध लक्षण: वातानुलोमन दीप्ताग्नि वर्चस्निग्धं असंहतम्‌.

स्नेहपान का समय:

  • अन्नकाले भूख लगने पर- संशमन स्नेहपान.
  • रात्रि के खाए हुए अन्न के जीर्ण होने पर- संशोधन स्नेहपान.

सामपित्त में अच्छसर्पि का निषेध: अन्यथा संज्ञानाश व मृत्यु.

स्नेहव्यापद्‌ की चिकित्सा: वमन, स्वेदन, कालप्रतीक्षा, स्रंसन, तक्रारिष्ट, मूत्र, त्रिफला.

* स्नेहन के 3दिन के बाद विरेचन व 1दिन के बाद वमन का प्रयोग करें.

* संशमन स्नेहपान में विरेचन के समान आचार-विधि है.

सद्य:स्नेहन विधि: पञ्चप्रसृतिकी पेया, माषमिश्रित चावलखीर. पञ्चप्रसृतिकी पेया- घृत तैल वसा मज्जा चावल 1-1 प्रसृत. अ.हृ.- सद्य:स्नेह संख्या 7.

कुष्ठ शोथ प्रमेह:  ग्राम्यआनूपऔदकमांस गुड़ दधि दूध तिल स्नेहन के लिए नहीं दें. पिप्पली हरड़ त्रिफला से सिद्ध स्नेह से स्नेहन करें (अ.हृ.- इनके अतिरिक्त क्षौद्र गोमूत्र गुग्गुलु)

योनिव्यापद्‌ शुक्रदोष: बदर त्रिफला के क्वाथ से सिद्ध घृततैलवसामज्जा.

सलवण स्नेह: अभिष्यन्दि सूक्ष्म उष्ण व्यवायी.

अध्याय के अंत में चन्द्रभागि (चन्द्रभागा का पुत्र पुनर्वसु) का उल्लेख.